धार्मिक मान्यता के अन्तर्गत प्राय: खासकार देहातों में और शहरों में भी, प्रारम्भिक
घरेलू पूजापाठ-कथा (सत्य नारायण व्रत
कथा आदि) सांस्कारिक (उपनयन संस्कार,
विवाह संस्कार आदि-आदि ) उत्सव वगैरह को पुरोहित पण्डितजन ही सम्पन्न कराते हैं । प्रारम्भिक स्तर
पर इनको महत्त्व भी अधिक दिया जाता है
क्योंकि प्राय: सभी ही घरेलू धार्मिक अनुष्ठान इन्हीं के
माध्यम से हुआ करते हैं । उसके एवज में दान-दक्षिणा आदि
प्राप्त करके अपना पारिवारिक जीवन यापन करते-कराते हैं जो कि
वशिष्ठ जी महाराज के अनुसार समाज में निन्दनीय और घृणित कार्य है। ऐसा इसलिए
उन्होंने कहा क्योंकि यजमानों का सारा प्रायश्चित इन्हीं (पुरोहित) लोगों पर पड़ता है । प्राय: ऐसा देखा जाता है कि
पुरोहित की आमदनी चाहे जितनी भी हो, प्राय: कंगाली का ही जीवन व्यतीत करते हैं । धर्म की वास्तविक स्थिति से इनका कोई
मतलब नहीं होता है । यह वर्ग घोर कर्मकाण्डी होता है । इनका सारा धर्म दान-दक्षिणा मात्र ही होता है; जीव एवं आत्मा-शिव-ईश्वर और परमात्मा-परमेश्वर भगवान् से कुछ भी
नहीं ।