वेदान्त का शाब्दिक अर्थ वेद के अन्तर्गत स्थित अन्तिम उपलब्धि से है और वेद के अन्तर्गत स्थित अन्तिम उपलब्धि का अर्थ-भाव है 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म की प्राप्ति जिसमें जड़-चेतन रूप सम्पूर्ण सृष्टि (ब्रह्माण्ड) भी अपने सम्पूर्ण विधानों (शिक्षा-स्वाधयाय-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान) सहित सम्पूर्णतया समाहित रहती है, जिसे जान-प्राप्त कर लेने के पश्चात् कुछ भी जानना-प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता । वेदान्त की वास्तविक स्थिति और उपलब्धि तो यह ही है अन्यथा कुछ भी नहीं । मगर व्यवहार में ऐसा है नहीं । व्यवहार में ऐसा नहीं होने का एक सबसे बड़ा कारण तो यह भी है कि 'सम्पूर्ण की सम्पूर्णतया' उपलब्धि एकमेव एकमात्र तत्त्वज्ञान से ही सम्भव है; अन्य किसी भी विधि-विधान से नहीं; योग-साधना-अधयात्म से भी नहीं । वह तत्त्वज्ञान विधान परमेश्वर अपने लिए केवल अपने ही लिए, परिचय-पहचान और कार्य-विधान के लिए पूर्णतया सुरक्षित रख लिया । जिसका परिणाम यह हुआ कि तत्त्वज्ञान रूपी परमसत्य ज्ञान रूपी सम्पूर्ण ज्ञान वाले विधान की जानकारी किसी भी अन्य को, यहाँ तक कि शंकर और आदि-शक्ति को भी नहीं मिल सकी ।
जानने के अन्तर्गत जिस परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म जिनके पास परमसत्य और सम्पूर्ण विधान रूप तत्त्वज्ञान सदा-सर्वदा स्थित रहता है । वे परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म सबमें क्या--धरती पर क्या--ब्रह्माण्ड में भी नहीं रहते । हाँ ! यह अवश्य ही सच है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी उनमें ही स्थित रहता है । ब्रह्माण्ड को उत्पन्न-स्थिति-चालन और लय-विलय-प्रलय करने वाली तीनों शक्तियाँ भी अभिन्न रूप से उन्हीं (परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म) में ही स्थित रहती हैं। जो कोई भी उन परमब्रह्म-परमेश्वर को तथा उनमें स्थित तीनों शक्तियों सहित जड़-चेतन रूप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को भी यथार्थत: जानना और साक्षात् देखना चाहे तो तत्त्वज्ञानदाता-तत्त्वदर्शी सत्पुरुष के यहाँ विशुध्द भाव से भगवद् समर्पित-शरणागत होकर भगवत् कृपा विशेष से तत्त्वज्ञान के द्वारा यथार्थत: जान और बात-चीत सहित स्पष्टत: साक्षात् देख भी सकता है।
ये उपर्युक्त सारी उपलब्धियाँ केवल अवतार बेला में ही एकमेव एकमात्र भगवदावतार जो कि एकमेव एकमात्र तत्त्वज्ञानदाता होता है, से ही भगवद् समर्पित-शरणागत जिज्ञासुओं को उपलब्ध होता रहता है । अन्यथा कभी भी और किसी से भी नहीं । वास्तव में वेदान्त की वास्तविक स्थिति यही है । मगर धरती के सारे वेदान्ती ही ज्ञान विहीन होते हुए भी मिथ्याज्ञानाभिमान के साक्षात् पुतले ही बन-हो-कर-रह गए हैं। मगर सिवाय अवतार के न तो कोई भी ऐसा होता है और न तो कोई है ही ।
प्राचीनकाल से वर्तमान तक के ऋषि-महर्षि-योगी-यती-सन्त-महात्मनों में एक वर्ग ऐसा भी रहा है जो कि वेद-उपनिषद् ग्रन्थों को पढ़कर और कहीं कभी तो जीव-कहीं कभी तो आत्मा-कहीं कभी तो परमात्मा सम्बन्धी भी प्रवचन-आदेश सुन-सुनकर अपने आप को शरीर से पृथक और श्रेष्ठ आभास करते हुए अपने को 'अहं ब्रह्मास्मि' घोषित करते हुए धर्म प्रेमी जिज्ञासुओं में इसी 'अहं ब्रह्मास्मि' पर कथा-प्रवचन और उपदेश भी करने लगते हैं । जबकि वास्तविकता यह है कि परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म- खुदा-गॉड-भगवान को तो ये लोग लेशमात्र भी जानते ही नहीं, आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म- नूर-सोल-स्पिरिट ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव को भी नहीं जानते । इतना ही नहीं जो ये लोग स्वयं (जीव) हैं, उस अपने आप 'जीव-रूह-सेल्फ' को भी बिल्कुल ही नहीं जानते ।
हाँ ! वेद-उपनिषद् ग्रन्थों के पढ़ने और धार्मिक प्रवचनों-उपदेशों को सुनने से इन (तथाकथित वेदान्ती) महानुभावों को शरीर से ऊपर कोई चीज अवश्य है जिसका शरीर में आने से जन्म और शरीर छोड़कर जाने से मृत्यु होती-कहलाती रहती है । मगर इन वेदान्ती जी लोगों को यह भी स्पष्टत: पता नहीं होता कि शरीर से पृथक् और ऊपर होने-रहने वाला वह क्या है ? जीव-रूह-सेल्फ है या आत्मा-ईश्वर-नूर-सोल-स्पिरिट शिव ज्योति है अथवा परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गॉड-भगवान ? यानी वह कौन है, कुछ भी स्पष्टत: पता नहीं होता ।
समस्त वेद पाठीय-शास्त्रीय पंडित-विचारक-स्वाधयायी-रामायणी-गीताध्यायी-मण्डलेश्वर-महामण्डलेश्वरगण आदि-आदि ही इस वर्ग (वेदान्तीगण) में आते हैं । हरिद्वार-ऋषिकेश-काशी-पुष्कर-अयोध्या-मथुरा आदि-आदि के समस्त मण्डलेश्वर- महामण्डलेश्वर और कथावाचकशास्त्री-मुरारी बापू-आशाराम-सुधांशु जी आदि-आदि सभी के सभी ही इसी वर्ग (तथाकथित वेदान्ती) में ही आते हैं । यह सच है--नि:संदेह ही सच है। जिस किसी को मेरी इन सत्य बातों से दु:ख-तकलीफ पहँची हो, वे ईमान-सच्चाई से सद्ग्रन्थीय और आवश्यकता पड़ने पर भगवद् समर्पण-शरणागत के आधार पर-प्रायौगिक (प्रेक्टिकल) आधार पर भी जाँच-परख कर सकते हैं, मनमाना नहीं । यहॉँ पर जाँच-परख की हर किसी के लिये खुली छूट है । मगर ईमान और सच्चाई से शांतिमय वातावरण में प्रेम-सौहार्द्र के साथ । आप जो कोई भी हों--सभी ही एकता अथवा समूह में भी इसकी (जॉँच-परख के) लिए सादर आमंत्रित हैं ।
ये वेदान्तीगण भूल-भ्रम के जितने ही बड़े शिकार होते हैं उतने ही बड़े ये साक्षात् मूर्तिवत् अहंकारी होते हैं । ये लोग जानते तो कुछ नहीं, मगर अपने से श्रेष्ठ किसी को सुनते-स्वीकारते भी नहीं । यदि भगवान भी इन लोगों के सामने साक्षात् प्रकट हों, तब भी ये सब उन्हें भी स्वीकार नहीं कर सकते । ये सब भगवान से भी सीधे सवाल उठाते हुए कहने लगेंगे कि तू भगवान कैसे हो सकता है ? भगवान मेरे अन्दर है 'अहं ब्रह्मास्मि'। भगवान बाहर होता ही नहीं। भगवान तो सबके अन्दर रहता है । मेरे में तेरे में जो बोल रहा है । वही तो भगवान है। यह भगवान ही तो बोल रहा है । इससे अलग भगवान क्या होता है जी ! कुछ नहीं होता है । अर्थात् साक्षात् भगवदावतार को भी ये वेदान्ती जी लोग 'अहं ब्रह्मास्मि' वाला मिथ्या ब्रह्मज्ञान सिखाने लगते हैं । उनसे भी ये वेदान्तीगण कुछ सुनना-सीखना नहीं चाहते । घोर अहंकारी तो ये सभी के सभी ही होते हैं, मगर लोभ-लालच में कुछेक को छोड़ करके प्राय: सभी ही घोर लोभी-लालची-स्वार्थी भी होते हैं । उदाहरणार्थ मुरारी बापू, आशाराम, सुधांशु आदि-आदि और महामण्डलेश्वरगण भी आप सबके सामने स्पष्टत: पड़े हैं। जाँच-परख करके देख लीजिए । सच्चाई का पता चल जायेगा।